आज के समय में धनतेरस को बर्तन की खरीदारी तक सीमित कर दिया है। इसका स्वास्थ्य की दृष्टि से बड़ा महत्व है। यह कार्य मन, आत्मा और ज्ञानेंद्रिय को प्रसन्न करने वाले होते हैं। आयुर्वेद ने स्वस्थ शरीर को ही धन माना है। ‘पहला सुख निरोगी काया और दूजा सुख घर में माया’ लक्ष्मीजी को दूसरा दर्जा दिया गया है। ऋषि मुनियों के द्वारा धनतेरस को प्रथम धन्वंतरि पूजन में भगवान से स्वस्थ रहने की प्रार्थना करने और दीपावली पर लक्ष्मी पूजन करने को कहा है। धनतेरस अर्थात भगवान ‘धन्वंतरि जयंती’ का अर्थ आयुर्वेद में ‘विद्या का पूजन’ और विद्या पूजन का अर्थ- प्रकृति, औषधि वनस्पति और इन सबसे बढ़कर प्रकृति की गोद में उपजी प्राकृतिक निधियों की पूजा है।
समस्त प्राणियों का कष्ट दूर करने, रोग-पीड़ा से ग्रसित मानव समुदाय की जीवन रक्षा के लिए परमात्मा ने स्वयं धन्वंतरि के रूप में अवतरित होकर जनकल्याण के लिए समुद्र मंथन से अमृत कलश लिए प्रार्दुभाव हुए और संसार में शल्य तंत्र को पुर्णतः विकसित किया। आज संसार में शल्य तंत्र (सर्जरी) आयुर्वेद की देन है।
धन्वंतरि के सर्वप्रथम उल्लेख महाभारत एवं पुराणों में मिलते हैं। विष्णु पुराण में भी बताया गया है कि समुद्र मंथन के बाद भगवान धन्वंतरि अमृत से भरा कलश धारण किए हुए निकले हैं। भगवत पुराण में ही धन्वंतरि को भगवान विष्णु का बारहवां अवतार बताया गया है। सुश्रुत संहिता दिवोदास धन्वन्तरि ने सुश्रुत आदि ऋषियों को उपदेश देते हुए बताया है कि मैं ही आदिदेव धन्वंतरि हूं और पृथ्वी पर आयुर्वेद के उपदेश के लिए अवतरित हुआ हूं। महाकाली की मूल प्रतिष्ठा औषधियों में मानी गई है। तंत्र शास्त्र में इसका वर्णन है।
प्राचीन काल में तांत्रिक विभिन्न जड़ी-बूटियों से औषधि बनाने का कार्य त्रयोदशी (धनतेरस) से लेकर अमावस्या (दीपावली) की अवधि में करते थे। यह काली पूजन की अवधि है। मंत्र सिद्धि की अवधि और तंत्र सिद्धि की अवधि है। तुलसी पूजन, आंवले के वृक्ष का पूजन, आंवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन करना, यह सब कार्तिक मास में होता है। इससे दैहिक, दैविक और भौतिक स्तर पर जीवन स्वस्थ रहे, मन प्रसन्न रहे और प्रकृति की अनुकंपा मिलती रहे।
जीवन संजीवनी और काल के सिद्धि की अधिष्ठात्री महाकाली है। समृद्धि, वैभव, भौतिक संपन्नता और श्री की अधिष्ठात्री लक्ष्मीजी हैं। इन दोनों के सहयोग से ही जीवन की पूर्णता प्राप्त होती है। इसलिए इसी पर्व पर ‘धन्वन्तरि जयंती’ मनाई जाती है। धनतेरस से लेकर भाईदूज तक का साप्ताह एक प्रकार से धनलक्ष्मी स्वास्थ (धन्वन्तरि), औषधि (महाकाल) अन्नकूट (अनुपूर्णा मय द्वितीया) यम की पूजा, आराध्य का सप्ताह है।
इन सारे पूजन अर्चन का अर्थ केवल उस चेतना का विकास है, जिससे मान, बुद्धि, चित और अहंकार का स्वाभाविक विकास हो सके। प्रकृति की अनुकूलता प्राप्त करने के लिए तुलसी पूजन, आकशदीप पूजन इसका प्रतीक है। धन्वन्तरि जयंती का अर्थ प्रकृति की अनुकूलता प्राप्त करके, प्रकृति की असीम अनुकंपा प्राप्त करना है। आयुर्वेद के अनुसार, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति स्वस्थ शरीर और दीर्घायु से ही हो सकती है।